लखनऊ। समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने लोकसभा की सदस्यता छोड़ दी है। वह उत्तर प्रदेश की करहल विधानसभा सीट से विधायक हैं। स्वाभाविक है कि उत्तर प्रदेश विधासभा में वही विपक्ष के नेता बनेंगे। अब तक अटकलें लग रही थीं कि यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी से योगी आदित्यनाथ को उतारकर खुद बैठने में असफल रहे अखिलेश विधायकी भी छोड़ देंगे और सांसद ही बने रहेंगे। हालांकि, आज उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को अपना इस्तीफा सौंपकर अटकलों पर विराम लगा दिया। वह आजमगढ़ से सांसद थे। अब यह कहा जाने लगा है कि अखिलेश ने सांसदी पर विधायकी को तवज्जो देकर बड़ी रणनीति की तरफ इशारा कर दिया है।
ऊपर के सवालों के जवाब ढूंढने से पहले यह जिक्र भी कर दें कि रामपुर से सांसद और सपा के कद्दावर नेताओं में शुमार आजम खान ने भी संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। संभव है कि उनके परिवार का कोई सदस्य अब इस सीट से किस्मत आजमाए और संसद पहुंच जाए। स्वाभाविक है कि अखिलेश आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य के पांच साल तक मुख्यमंत्री रहे हैं। उनका पूरा खानदान राजनीति में है और पिता मुलायम सिंह यादव तो देश के राजनीतिक महारथियों में शुमार किए जाते हैं। इतने सियासी अनुभवों को समेटे अखिलेश ने यूं ही तो सांसदी छोड़कर विधायकी नहीं अपना ली। उन्हें हालिया विधानसभा चुनाव परिणाम से समझ आ चुका है कि पार्टी के हित में उनका यूपी में रहना जरूरी है बनिस्बत दिल्ली में रहने के।
इस बार के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी 111 सीटों तक सिमट गई, वो भी तब जब उसका राष्ट्रीय लोकदल से गठबंधन था, जिसके खाते में सिर्फ आठ सीटें आई हैं। इतना ही नहीं, अखिलेश चुनाव से ठीक पहले योगी सरकार के तीन कैबिनेट मंत्रियों- ओम प्रकाश राजभर, दारा सिंह चौहान और स्वामी प्रसाद मौर्य को तोड़कर सपा के पक्ष में जबर्दस्त माहौल बनाने में कामयाब रहे थे। बावजूद इसके इनमें सबसे बड़बोले स्वामी प्रसाद मौर्य अपना ही चुनाव नहीं जीत सके। अखिलेश ने आरएलडी के जयंत चौधरी का साथ लिया और कुलांचे भरने लगे कि किसान आंदोलन के कारण बीजेपी से नाराज जाट समुदाय के मतदाताओं के बड़े हिस्से को अपनी तरफ कर लेंगे। हालांकि, ऐसा हुआ नहीं और जाट बेल्ट माने जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 126 विधानसभा सीटों में बीजेपी को 67 प्रतिशत यानी 85 सीटें मिल गईं। हैरानी की बात तो यह है कि जिस लखीमपुर खीरी में किसानों के एक दल को केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता अजय मिश्रा टेनी के पुत्र आशीष मिश्रा के इशारे पर गाड़ियों से रौंदने का आरोप लगा, वहां की सभी आठ सीटें बीजेपी की झोली में गिर गईं। अखिलेश इन संकेतों को अच्छे से समझ चुके हैं।
अखिलेश की राजनीतिक समझ के स्तर का अंदाजा इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2012 के पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार सपा को 100 फीसदी से ज्यादा सीटों का फायदा हुआ और उसे 10 प्रतिशत वोट भी ज्यादा मिले, फिर भी उन्होंने बेपरवाही नहीं दिखाई। वो यह सोचकर दिल्ली में बने रहने का विकल्प नहीं चुना कि यूपी में उनकी पार्टी मजबूत ही हुई है और कमजोर हुई है तो बीजेपी। इसका जिक्र इसलिए करना जरूरी है कि व्यक्ति हो या पार्टी, लोकप्रियता बढ़ने पर ज्यादातार बार लापरवाही और आलस्य के आलम में फंसने की आशंका भी बढ़ जाती है। लेकिन व्यक्ति के तौर पर अखिलेश ने अपनी पार्टी को इस संभावित खतरे से दूर रखने की ठानी और लोकसभा की सदस्यता छोड़ दी। अब वो यूपी विधानसभा में रहकर योगी सरकार की नीतियों पर कड़ी नजर रख पाएंगे और हर उस मौके को अपनी पार्टी के हित में भुनाएंगे जहां योगी सरकार थोड़ी सी भी कमजोर दिखेगी।