ऋषि चौहान
एटा। जो कांग्रेस कभी एटा और कासगंज जिले में राजनीति का पर्याय थी। वही कांग्रेस बीते 23 साल से एटा और कासगंज जिले के किसी भी लोकसभा या विधानसभा क्षेत्र में खाता नहीं खोल सकी है। बीते 23 साल से वनवास झेल रही कांग्रेस का पुनर्वास एटा की राजनीति में कब होगा? आज के हालात में यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है।
यह बताने की जरूरत नहीं कि 23 साल पहले 1989 के चुनाव में कांग्रेस ने आखिरी बार पटियाली, अलीगंज और निधौली विधानसभा क्षेत्रों में क्रमशः कुंवर देवेंद्र सिंह यादव, चौधरी लटूरी सिंह यादव और एके सिंह के रूप में 3 सीटें जीती थी, उसके बाद अब तक कितने ही लोकसभा और विधानसभा चुनाव हो चुके हैं लेकिन कांग्रेस को एक भी सीट नसीब नहीं हुई है। रोचक बात यह है कि आजादी के बाद जिस कांग्रेस के पास पिछड़ा और दलित वोट बैंक था, वह आज वोट बैंक की मोहताज है। कोर वोट बैंक के लिए संघर्ष कर रही है। एटा और कासगंज की सातों सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशी तो हैं लेकिन धरातल पर प्रभावी नजर नहीं आ रहे। यही कारण है कि अब तक पूरा चुनाव बीत चुका मतदान भी हो चुका, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी या कोई और भी कांग्रेस का दमदार नेता कांग्रेस का प्रचार करने नहीं आया।
इतिहास गवाह है कि कांग्रेस का देश की आजादी के बाद गौरवशाली इतिहास रहा था। एटा की 8 सीटों में से कांग्रेस ने आजादी के बाद 1952 में शुरू हुए चुनावों में से विधानसभा की 7 सीटें जीती थी। वही कांग्रेस अब एक सीट जीतने के लिए तरस रही है।
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी का एटा की राजनीति में खास स्थान था। 1977 की जनता पार्टी लहर में जब खुद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चुनाव हार गई थी उसके बाद नारायण दत्त तिवारी ने ही कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए बारहद्वारी कासगंज पर झंडा आंदोलन 1978 में चलाया था। वही झंडा आंदोलन कांग्रेस के लिए वरदान साबित हुआ, उस आंदोलन के बाद कांग्रेस पुनर्जीवित हो गई लेकिन आज के हालात में कांग्रेस कब उबर पाएगी। यह आने वाले चुनाव परिणाम ही गवाही देंगे।
एटा जिले में कांग्रेस का गौरवशाली इतिहास था इसी का प्रमाण है कि एटा के सांसद रोहन लाल चतुर्वेदी पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल में रेल मंत्री बने थे। तब कांग्रेस का मत प्रतिशत 33% से ज्यादा था लेकिन अब घटकर 10% से नीचे आ चुका है। हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि दिग्गज प्रत्याशियों का कांग्रेस में अकाल है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि राजनीतिक वनवास झेल रही कांग्रेस का पुनर्वास आखिर कब होगा?